अमेरिका में बढ़ेगा ब्याज, भारत में क्यों है तनाव ?

दुनियाभर की नजरें इस महीने की 16,17 तारीख को अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व की होने वाली बैठक पर है। बैठक के बाद फेडरल रिजर्व ब्याज दर को लेकर क्या फैसला करता है, इसको लेकर अटकलों का बाजार गर्म है।

हाल ही में आए रोजगार के आंकड़ों के बाद कुछ जानकारों को लगता है कि फेडरल रिजर्व ब्याज दर बढ़ाएगा। हालांकि, कुछ जानकारों को दिसबंर में ब्याज दर बढ़ाने का अनुमान है। कई जानकार तो अब अगले साल ब्याज दर में बढ़ोतरी के कयास लगा रहे हैं।

17 सितंबर को फेडरल रिजर्व क्या फैसला लेता है, ये तो उसी दिन पता चलेगा, लेकिन अगर ब्याज दर बढ़ता है, तो भारतीय इकोनॉमी, भारतीय बाजार, रुपए पर इसका असर पड़ सकता है।

फेडरल रिजर्व ने 2007-08 में सब-प्राइम संकट से पैदा हुई मंदी के दौरान इकोनॉमी में जान फूंकने के लिए फेडरल फंड रेट को अगस्त 2007 के 5.25% से घटाकर दिसंबर 2008 तक 0- 0.25% कर दिया था। तब से अमेरिका में ब्याज दर इसी स्तर पर बना हुआ है।

सबप्राइम संकट की वजह से बड़े-बड़े बैंक बर्बाद हो गए, लोन देने वाली बड़ी-बड़ी संस्थाएं दिवालिया हो गईं, इकोनॉमी ग्रोथ पटरी से उतरने लगी, दुनियाभर में प्रॉपर्टी की कीमत ढहने लगी, बैंक और वित्तीय संस्थाएं डिफॉल्ट होने लगे, उनकी बैलेंश सीट गड़बड़ाने लगी। अमेरिका में सबप्राइम संकट का असर दुनिया भर में होने लगा। ग्लोबल इकोनॉमी में एक तरह से ठहराव सा आ गया।

ब्याज दर में कटौती के अलावा, अमेरिका में क्रेडिट मार्केट को पटरी पर रखने के लिए कई उपाय किए गए। बैंक और वित्तीय संस्थाओं को शॉर्ट टर्म लिक्विडिटी प्रदान की गई। साथ ही दूसरे देशों के साथ द्विपक्षीय करंसी स्वैप एग्रीमेंट को मंजूरी दी गई।

इसके अलावा फेडरल रिजर्व ने सिस्टम में नगदी झोंकने और बैकों, वित्तीय संस्थाओं को कर्ज देने के लिए पैसे मुहैया कराने के इरादे से लंबी अवधि की सिक्योरिटीज खरीदने लगा, जिसे क्वांटिटेटिव इजिंग (quantitative easing or QE) के नाम से जाना गया। क्वांटिटेटिव इजिंग के जरिये प्रॉपर्टी की कीमतों में बढ़ोतरी और महंगाई बढ़ाने की कोशिश
की गई।

इकोनॉमी में जान फूंकने के लिए किए उपाय हमेशा जारी नहीं रखे जा सकते। इसलिए इन उपायों को धीरे-धीरे खत्म करने के लिए फेडरल रिजर्व ने कुछ शर्त तय कर रखी है...मसलन, लंबी अवधि में बेरोजगारी की दर 5.2% के नीचे रहे और महंगाई की दर 2% तक हो।

अगस्त नॉन फार्म पेरोल्स रिपोर्ट के मुताबिक, 1,73,000 नौकरियां का निर्माण हुआ जबकि अनुमान 2,22,000 का था। वहीं बेरोजगारी दर उम्मीद से से ज्यादा कम होकर 5.1% (अनुमान 5.2% का था) पर आई, जो कि जून 2008 के बाद सबसे कम है। वहीं एवरेज आवरली वेजेज में उम्मीद से ज्यादा 0.3% की बढ़ोतरी हुई।

ब्याज दर बढ़ने के अलावा डॉलर कैरी ट्रेड को लेकर सबसे ज्यादा चिंता है। अमेरिका में 2008 के अंत से  करीब शून्य ब्याज दर पर कर्ज मिलने की वजह से कंपनियों ने कर्ज लेकर उससे विदेशों में एसेट्स खरीदें या फिर विदेशी कंपनियों को कर्ज दिया। लेकिन, अब डॉलर दूसरे देशों की करंसी के मुकाबले काफी मजबूत हो चुका है। 2009 के अपनी निचले स्तर से करीब 30% मजबूत हो चुका है। डॉलर की मजबूती का मतलब ये हुआ कि डॉलर टर्म में कर्ज लेने वालों को स्थानीय करेंसी में ज्यादा की रकम चुकानी होगी। दूसरा, ब्याज दर जब बढ़ना शुरू होगा तो स्प्रेड कम होगा जिससे डॉलर कर्ज चुकाने के लिए आपाधापी मचेगी और इससे खरीदे गए एसेट्स की बिकवाली तेज हो जाएगी। ब्याज दर बढ़ने के बाद डॉलर और मजबूत होगा तो डॉलर लोन से खरीदे गए दूसरे
एसेट्स की भी बिकवाली बढ़ेगी।

भारत पर असर: 

1-भारतीय शेयर बाजार पर असर: 2009 के शुरुआत से ही अमेरिका में डॉलर कैरी ट्रेड के शुरू होने और स्टिमूलस पैकेज के पहले चरण से भारतीय शेयर बाजार में विदेशी निवेशकों का पैसा धीरे-धीरे आना शुरू हो गया था। इस दौरान भारतीय शेयर बाजार में नेट फॉरेन इन्वेस्टमेंट करीब 102 अरब डॉलर रहा।

लेकिन, जानकारों के मुताबिक, अमेरिका में ब्याज दर बढ़ने पर भारतीय इक्विटी बाजार से विदेशी निवेशकों के सारे के सारे पैसे निकलने की आशंका कम है। उनका मानना है कि सेंसेक्स 2009 के शुरुआत के मुकाबले सेंसेक्स में करीब 200% की तेजी आई है, हालांकि डॉलर टर्म में 116% मजबूत हुआ है। वहीं कई लिस्टेड कंपनियों ने 2008 से काफी खराब रिटर्न दिया है।

चुकि, इक्विटी निवेशक ग्रोथ की संभावनाओं पर पैसा लगाते हैं और भारत में ग्रोथ की अपार संभावना है। इसलिए भी अमेरिका में ब्याज दर बढ़ने पर भारतीय इक्विटी बाजार में ज्यादा  FII बिकवाली की संभावना कम है।

2-भारतीय डेट  बाजार पर असर: अमेरिका में ब्याज बढ़ने से भारतीय इक्विटी बाजार पर ज्यादा असर की संभावना भले ही कम बताई जा रही हो, लेकिन यही बात भारतीय डेट के साथ नहीं कही जा सकती है।

2009 के शुरुआत से विदेशी निवेशकों ने भारतीय डेट बाजार में करीब 53 अरब डॉलर निवेश किया है। 2013 में फेडरल रिजर्व ने जब क्वांटिटेटिव इजिंग या एसेट खरीदारी को खत्म करने का इरादा जताना शुरू किया तो विदेशी निवेशकों ने 13 अरब डॉलर निकाल लिये। भारतीय डेट बाजार में 2014 के शुरुआत 32 अरब डॉलर निवेश किया है।

भारतीय डेट बाजार से पैसा निकलना इकोनॉमी की स्थिरता के लिए खतरा है, क्योंकि डेट में विदेशी निवेशक इसलिए पैसा लगाते हैं कि वो अपना लक्ष्य काफी छोटी अवधि के लिए रखते हैं और यील्ड और करंसी मूवमेंट को लेकर काफी संवेदनशील होते हैं।

अमेरिका में आर्थिक मंदी की वजह से इमर्जिंग मार्केट के बॉण्ड में ज्यादा ब्याज मिलने की वजह से विदेशी निवेशकों ने काफी रुचि दिखाई थी। IMF यानी अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की फाइनेंशियल स्टैबिलिटी रिपोर्ट के मुताबिक, 2009 से लेकर अबतक इमर्जिंग मार्केट बॉण्ड फंड का एसेट्स दोगुना से भी ज्यादा हो गया है  जो कि करीब एक ट्रिलियन डॉलर होता है। इसकी काफी संभावना है कि इमर्जिंग मार्केट बॉण्ड फंड में डॉलर कैरी ट्रेड के जरिए जुटाए गए पैसों का निवेश हो। इसलिए इक्विटी बाजार के मुकाबले बॉण्ड बाजार में अमेरिका में ब्याज दर बढ़ने का ज्यादा असर हो सकता है।

हालांकि भारतीय बॉण्ड के साथ एक अच्छी बात ये है कि ये अधिक यील्ड वाला है और यहां का मैक्रो सुधर रहा है। इससे बहुत संभव है कि विदेशी निवेशक वापस भारतीय बॉण्ड बाजार में लौटे।

-सोना, और कच्चे तेल की कीमतों पर असर: डॉलर के मजबूत होने से सोने की कीमत में और कमी आने की संभावना है। निवेशक सितंबर 2011 से ही सोना से बाहर निकल रहे हैं। सोना के अलावा दूसरी कमोडिटीज मसलन, कच्चा तेल लंबे समय से कमजोर प्रदर्शन कर रहा है। यानी निवेश के तौर पर सोना और कच्चा तेल फिलहाल उतना आकर्षक नहीं रहा।

-भारतीय प्रॉपर्टी बाजार पर असर: भारत का मौजूदा रियल इस्टेट कानून किसी भी विदेशी निवेशक को सीधे रियल्टी में निवेश की इजाजत नहीं देता है। हालांकि विदेशी निवेशकों का प्राइवेट इक्विटी और वेंचर कैपिटल फंड के जरिए रियल इस्टेट, स्टार्ट-अप्स और अनलिस्टेड कंपनियों में पैसा लगा है, लेकिन चुकि ये लंबी अवधि का निवेश है,इसलिए अमेरिका में ब्याज दर बढ़ने का असर भारतीय प्रॉपर्टी मार्केट पर पड़ने की संभावना नहीं है।

-भारतीय बाहरी कर्ज पर असर: भारतीय कंपनियां फंड जुटाने के लिए डॉलर टर्म में कर्ज लेती है। अमेरिका में ब्याज दर बढ़ने से ऐसी कंपनियों पर असर होना लाजिमी है। भारत के कुल बाहरी कर्ज में सरकार की हिस्सेदारी पांचवें भाग से भी कम है यानी डॉलर टर्म में कर्ज लेने वाली भारतीय कंपनियों के लिए अमेरिका में ब्याज दर बढ़ने का खतरा ज्यादा है।

देश के कुल बाहरी कर्ज में गैर-सरकारी कर्ज का हिस्सा दिसंबर 2007 के 73.7% के मुकाबले इस समय बढ़कर 80.5%  है। कई देशों में करीब शून्य ब्याज पर कर्ज मिलने की वजह से भारतीय कंपनियां वहां से कर्ज लेना बेहतर समझती हैं।

रिजर्व बैंक के मुताबिक, भारत पर बाहरी कमर्शियल कर्ज (ECB) दिसंबर 2007 के 57 अरब डॉलर के मुकाबले मार्च 2015 में बढ़कर 182 अरब डॉलर हो गया है। डॉलर टर्म में कर्ज का हिस्सा दिसंबर 2007 में 54% था जो कि दिसंबर 2014 में बढ़कर 59%हो गया। अगर फेडरल रिजर्व ब्याज बढ़ाता है तो एक तो भारतीय कंपनियों को ज्यादा ब्याज चुकाना पड़ेगा। साथ ही फ्यूचर डॉलर लोन भी महंगा हो जाएगा, जिसका असर उसके ऑपरेटिंग मार्जिन पर पड़ सकता है। यूरोपियन सेंट्रल बैंक और बैंक ऑफ जापान ने भी ब्याज दर बढ़ाना शुरू कर दिया है जिससे भारतीय कंपनियों का कॉस्ट ऑफ फंडिंग बढ़ना तय है।

-भारत पर ज्यादा असर नहीं, क्योंकि
-महंगाई कम है
-CAD, फिस्कल डेफिसिट काबू में
-ग्रोथ में धीरे-धीरे सुधार
-कमोडिटी के दाम में कमी भारत के लिए फायदेमंद
-कच्चे तेल की कीमत में कमी
-फॉरेक्स रिजर्व काफी बेहतर
यानी अगर ग्लोबल आर्थिक संकट बढ़ता है तो भारत बहुत हद तक उससे अपने को बचा के रख पाने में सक्षम होगा

((ग्लोबल मार्केट के लिए 17 सितंबर क्यों है अहम
http://beyourmoneymanager.blogspot.in/2015/09/17.html

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