कर्ज की दर तय करने का BPLR से MCLR तक का सफर; ग्राहकों को कितना फायदा ?

इस साल अप्रैल से कर्ज की दरें तय करने की नई व्यवस्था लागू हो गई है जो कि सीमांत निधि लागत पर आधारितउधारी दर (Marginal Cost of Funds based Lending Rate-MCLR) कहलाती है। केंद्रीय बैंक भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) द्वारा प्रमुख दरों में कटौती का फायदा तुरंत ग्राहकों को देने और कर्ज की दर तय करने के नियमों में पारदर्शिता लाने के लिहाज से MCLR नाम से नई व्यवस्था लागू की गई है। 
आपको याद होगा, पिछले साल यानी 2015 में रिजर्व बैंक ने प्रमुख दरों में 1.25 % की कटौती की थी, लेकिन बैंकों ने कर्ज पर ब्याज दरों में महज 0.5-0.6% की ही कटौती की थी। इसके लिए बैंक रिजर्व बैंक, सरकार, इंडस्ट्री, आम लोगों समेत हर तरफ से निशाना भी बने। 

बैंक हमेशा कर्ज देने की अधिक लागत (कॉस्ट ऑफ फंडिंग) और छोटी बचत योजनाओं पीपीएफ, किसान विकास पत्र,  पोस्ट ऑफिस सेविंग्स स्कीम, सुकन्या समृद्धि योजना,वरिष्ठ नागरिक बचत स्कीम, नेशनल सेविंग्स सर्टिफिकेट सहित तमाम छोटी बचत योजनाओं पर अधिक ब्याज दर को जिम्मेदार ठहराते रहे। बैंकों की इस शिकायत को दूर करने और रिजर्व बैंक के प्रमुख दरों में कटौती का तुरंत फायदा ग्राहकों को देने के लिए इस अप्रैल से दो अहम बदलाव किए गए, जिसमें एक तो MCLR है और दूसरे छोटी सरकारी बचत योजनाओं पर मिलने वाली ब्याज दर को कम करते हुए इनको बाजार आधारित कर दिया गया। यही नहीं, सरकार छोटी सरकारी बचत योजनाओं पर मिलने वाली ब्याज दर की हर तिमाही समीक्षा भी करेगी। 
BPLR बनाम बेस रेट बनाम MCLR: 
कर्ज की दर तय करने में पारदर्शिता के मोर्चे पर नाकाम रहने की वजह से एक जुलाई 2010 से कर्ज की दर करने
करने के लिए बेस रेट लागू किया गया, लेकिन पारदर्शिता के पैमाने पर ये व्यवस्था भी खरा नहीं उतर रही है, तो 1 अप्रैल 2016 से इसके लिए सीमांत निधि लागत पर आधारित उधारी दर (Marginal Cost of Funds based 
Lending Rate-MCLR) नाम से नई व्यवस्था लागू की गई है। 2010 जुलाई से पहले जिन्होंने भी लोन लिया है
वो BPLR के आधार पर है। हालांकि, लोन खत्म होने से पहले ग्राहक इसे बेस रेट में बदल सकते हैं। एक बात और किसी भी बैंक का ब्याज दर रिजर्व बैंक नहीं तय करता है बल्कि बैंक खुद तय करते हैं। 

>BPLR: 
बेंचमार्क प्राइम लेंडिंग रेट (Benchmark Prime Lending Rate-BPLR) वह रेट होता है जिस पर कमर्शियल बैंक
अपने-अपने कर्ज के लिए सबसे उपयुक्त ग्राहकों को कर्ज देते हैं। रिजर्व बैंक के मुताबिक, बैंक अपने बोर्ड की मंजूरी से BPLR तय कर सकते हैं। हालांकि, रिजर्व बैंक ये भी पूर्वापेक्षा करता है कि बैंकों के BPLR रेपो रेट और कैश रिजर्व रेश्यो (CRR) से भी प्रभावित हो। इसका मतलब हुआ रेपो रेट और कैश रिजर्व रेश्यो में बदलाव का फायदा BPLR तय करते समय बैंक ग्राहकों को दें।  

लेकिन, बैंकों के लेंडिंग रेट्स (कर्ज की दर) तय करते समय पारदर्शिता लाने में BPLR सिस्टम नाकाम साबित हुई। BPLR की गणना में पारदर्शिता नहीं है और कई बार तो बैंक कुछ ग्राहक को BPLR से भी कम ब्याज दर पर कर्ज देते हुए देखे गए हैं। खासकर बड़े-बड़े कॉर्पोरेट्स को तो BPLR से 4-4%  कम ब्याज पर लोन देते हुए पाए गए। मसलन, अगर किसी बैंक का मौजूदा BPLR 10% है तो 6% ब्याज पर भी लोन दिया गया। इसलिए कर्ज की दर तय करने के लिए जुलाई 2010 में बेस रेट सिस्टम लागू की गई। 

> बेस रेट: 
बेस रेट या मिनिमम लेंडिंग रेट वो न्यूनतम ब्याज दर (मिनिमम इंटरेस्ट रेट) होता है जिससे कम दर पर बैंक किसी को कर्ज नहीं दे सकते हैं। हालांकि, इसमें DRI allowances, बैंक के अपने कर्मचारी या फिर बैंक के जमाकर्ता को उसकी जमाओं के आधार पर बेस रेट से कम ब्याज पर कर्ज देने के लिए बैंक स्वतंत्र होते हैं। बेस रेट सिस्टम लागू होने के बाद BPLR सिस्टम धीरे-धीरे अपनी अहमियत खोती गई। जिन लोगों ने जुलाई 2010 से पहले कर्ज लिया था उन्हीं के बीच सीमित होकर रह गई थी BPLR सिस्टम। 

बेस रेट रिजर्व बैंक तय नहीं करता है, सभी बैंक अपने-अपने बेस रेट तय करते हैं। यही वजह है कि सारे बैंक के बेस रेट अलग-अलग होते हैं। बेस रेट को पारदर्शी बनाने के लिए सभी बैंकों को उनकी वेबसाइट पर बेस रेट की जानकारी देने  को कहा गया है। 
रिजर्व बैंक हर तिमाही में अपनी पॉलिसी की समीक्षा करता है और जरूरत के मुताबिक उसमें बदलाव करता है या फिर बिना बदलाव के ही दरों को छोड़ देता है। बैंक रिजर्व बैंक के फैसले के मुताबिक कर्ज की दरों में बदलाव करना या ना करने के लिए स्वतंत्र होते हैं लेकिन रिजर्व बैंक बैंकों से पॉलिसी में बदलाव का फायदा ग्राहकों को देने की उम्मीद करता है। 

>MCLR: 
कर्ज की दर तय करने में पारदर्शिता लाने के लिए BPLR की जगह बेस रेट सिस्टम को लाया गया था लेकिन पारदर्शिता के पैमाने पर बेस रेट सिस्टम भी कारगर साबित नहीं हुई। रिजर्व बैंक द्वारा प्रमुख दरों में कटौती का फायदा देने में बैंक नाकाम रहे। मसलन, 2015 में रिजर्व बैंक ने प्रमुख दरों में 1.25% की कटौती की, लेकिन बैंकों ने कर्ज की दरों में महज 0.5-0.6% की ही कटौती का फायदा ग्राहकों को दे सकें। इसके विपरीट, अगर रिजर्व बैंक प्रमुख दरों में बढ़ोतरी करता है तो कर्ज की दर बढ़ाने में यानी कर्ज महंगा करने में बैंक जरा भी देर नहीं करते हैं। 

इसलिए एक अप्रैल 2016 से बेस रेट की जगह कर्ज की दर तय करने के लिए कोष की सीमांत लागत के आधार पर  (MCLR) सिस्टम लागू की गई। यानी बैंकों को अब कोष की सीमांत लागत के आधार पर (MCLR) ब्याज दर में संशोधन करना होगा। इसके तहत उनको एक बेंचमार्क दर के बजाय कम से कम पांच बेंचमार्क दरों की घोषणा करनी होगी जो विभिन्न अवधि एक दिन के कर्ज से लेकर एक महीने, तीन महीने, छह महीने और एक साल की अवधि के हिसाब से अलग-अलग होगी। रिजर्व बैंक ने लंबी अवधि के कर्ज के लिए बेंचमार्क दर निर्धारित करने की जिम्मेदारी भी बैंक के ऊपर छोड़ा है। 

कर्ज की दर तय करने के लिए अलग-अलग फॉर्मूले का इस्तेमाल किया जाता है। नए नियम मार्जिनल कॉस्ट ऑफ फंड्स (MCLR) फॉर्मूले पर आधारित हैं, जबकि बेस रेट सिस्टम के मुताबिक कॉस्ट ऑफ फंडिंग के आधार पर बैंक कर्ज की दरों में कमी का फैसला करते हैं। अभी बैंक बेस रेट को ऐवरेज कॉस्ट ऑफ फंड्स, मार्जिनल कॉस्ट ऑफ फंड्स या ब्लेंडेड कॉस्ट ऑफ फंड्स (लायबिलिटीज) के आधार पर कैलकुलेट करते हैं। रिजर्व बैंक इसमें पारदर्शिता बढ़ाना चाहता है।

देखना ये है कि पारदर्शी तरीके से कर्ज की दर तय करने और प्रमुख दरों में कटौती का फायदा देने में (MCLR) सिस्टम कितना कामयाब हो पाती है। 

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